समानता – अभी बाकी है!
य ूं तो अपनेआप को ढ ूंढा है,
अपनेअसली पहचान को ढ ूंढा है।
पता ना था कहाूंऔर क्या करनेआया हूं ,
ककन्तुथा हमेशा एहसास कु छ तो खास बननेआया हूं ।
बताया इसी समाज नेअलग तन मेंआया हूं ,
ककन्तुखुद पर था यकीन ,
इन सााँसोूंसेज़्यादा , उस रब के मन मेंआया हूं ।
समय बदला , मेरी काया बदली , ककन्तुमेरा मन ना बदला ।
समाज नेऐसा रटाया , कक अपनी असली पहचान को ही गवाया ।
था कु छ और ककन्तुखुद को कु छ और ही बनाया ।
य ूं तो हूंसता ककन्तुयेअटल मन भी मुझसेकु छ कहता ,
क्या कर रहा हैत , क्योूंकर रहा हैत , एक बार तो प छ अपनेइस मन से
आखखर इसी समाज नेबना डाला मुझे, जो था नही ूंअपनेतन-मन से।
समय का क्या पता , क्या सूंजोया हैउसनेमेरेपथ पे
बस मन मेंदोहराता गया त चलता जा अपनेइसी खोखलेसमाज के खोखलेनक्शे– कदम पे|
खुद को बाूंधा , खुद को झूंगझोडा , खुद को तोडा
प छना हैतो प छो , मैंनेखुद ही क्योूंउस खुदा की अनमोल प्रकतमा को मरोडा ।
कु छ तो अलग हूं , कु छ तो अलग बतानेआया हूं
साथ ना कमला ककसी का किर भी ए समाज कु छ तो मैंभी जतानेआया हूं ।
चलता गया , सहता गया , सुनता गया , करता गया
इसी कश्मकश मेंखुद ही को खोता गया ।
पर कब तक सहना था , एसी खोखलेसमाज को ही हमेशा कहना था
आज खुद समय यह कहनेआया है, उसी खुदा की रहमत देनेआया है।
आखखर समझ आया तो खुद को कदखाया , खुद को जताया , खुद को आगेबढाया
ककन्तुकिर यही खोखला समाज उस खुदा की कसहाई को भी ना समझ पाया ।
देखा चारोूंऔर तो कदखा हर जगह , हर पल एक लाल गहरा घाव
तब समझ आया इसी समाज नेबाूंटा था हर एक अलग व कीमती भाव ।
ककसी को ककसी नजर , ककसी को ककसी अदब सेतौला
सबसेप छा क्योूंसबनेइसी बूंदेसेय ूंमुूंह मोडा ।
ढ ूंढता ही रह गया बस अपना ही वज द ,
आखखर इसी समाज नेबताया येहैतेरी इस अलग पहचान का कस र ।
अतः यही हैसमानता इस सूंप र्णजन की ,
जो अब तक कसखाया गया , देखो यही हैअस ल उस रब के मन की ।
Vishwajeet Singh
VSE
1 B